Wednesday 2 December 2015

नाराज दोस्त

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नाराज दोस्त
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वोही

नाराज़ था ;
मुझसे
एक दिन
दौड़ पड़ा
मेरी ओर |
मैं मुट्ठियाँ
भींचता ,
उससे पहले
पटक दिया
उसने |
क्यूँ , क्या
बात है ,
मैं थोड़ा
हकलाया |

क्या करता
है यार
गाना सुनते
हुए भी कोई
रोड क्रॉस
करता है,
भला |

मेरे चारों
और बिखरे
सामान
समेट ,
वोह मुझसे
लिपट के
ढाँढस दे
चलता बना |

पास खड़े
लोग मुझे
लानतें
भेज रहे थे ;
मोबाईल
सुनते-सुनते
ये, हमसे
उस कारवाले
की धुनाई ही
करवा देता |
भले आदमी
ने इसके साथ
कारवाले को
भी बचा लिया |

ये मिठाई और
फूल लिए
मैं,
मौत से बचाने
वाले
दोस्त के
ही
घर की
डोरबेल बजा
धन्यवाद
कह रहा हूँ |
नाराज दोस्त
को ना मनाने
के अपने फैसले
से खफ़ा हूँ |

वोही
नाराज़ था ;
मुझसे
एक दिन
दौड़ पड़ा
मेरी ओर |

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~ प्रदीप यादव ~

Saturday 28 November 2015



यूँ बार बार ना देख इन जख्मों की उकेर ;

घावों की पीर के नाम जिंदगी की हमने ।     
प्रदीप यादव ~
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देखो दिल की गुलामी करके , 


महफ़िलों में दिल वाले मिले |
 


होश 
रखिये तोह वोह दिलनवा मिले ;

हार कर जीतने का सिलसिला मिले
 
          
प्रदीप यादव ~

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दिल टूटने से न डर, लगाते हैं दिल ,

वोह इसका सोना परखने के लिए |            
प्रदीप यादव ~

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कातिल दिल का पूछ ही बैठा ,


बता खिलौना ए दिल, हौसले
 तुझमें

भरता कौन ?
                                      
प्रदीप यादव ~
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या रब ....


तपाना मुझे भी उस दौर तक ,

संवर जाऊँ ईंसाँ के तौर तक |                    
प्रदीप यादव ~

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पूछा जो उसने दिल का रास्ता ,


सुराख दिलों के हमने दिखलाए |                 ~ प्रदीप यादव ~


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चाय हो जाए

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चाय हो जाय------------------- खींच लूँगा दो पल ये ज़िंदगी चाय चाहतें और दिन सर्दी के , चंद बिस्किट्स के साथ गटकी सुनहरी दुधिया मीठी सी गर्मी | रात ये नींद के नशे गूज़ार लोगे ख़ुमारी में, फर्ज़ है ये ताज़ा चस्का , मना लेते है, महकती कसक़ पर , हर एक रूठते को, ये चुस्कि भर चाय के स्वाद | ----------------------~ प्रदीप यादव ~

Friday 26 September 2014

दिल ओ दिमाग




दिल ओ दिमाग


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दिमाग रखा करिए ;

शिकवे गिनाने को ;


दिल भी रख लीजिए ;

रूठे मनाने को |

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~ प्रदीप यादव ~

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खुश हो लिए ज़माने में

हदे गम जानकर ;


हैरान हो रही दुनिया

ख़ुशीयों को पाकर |

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~ प्रदीप यादव ~

Thursday 25 September 2014

स्त्रीबीज के अनुवर्ती ....

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स्त्रीबीज के अनुवर्ती ....
( by ~ प्रदीप यादव ~)

समपाती
अनुयायिनी
अथवा
पुरूषों सी अनुचरी ;
कब तक
स्वीकारती रहती
आलम्बन के अवशिष्ट ;
देवी कह
वैतरणी तिरा आए
भविष्यगर्भा के मान ;
कलुषित, विषाक्त
 प्रयोगशाला के
परिष्कृत अनुसंधानी ;
बीज विरूपण
को सोच
संवर्धित प्रमापों
से अणुव्रत ले,
दुश्चरित्रा , कुलटा
कह स्वयंसिद्ध
प्रमाणक कहलाएं |
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~ प्रदीप यादव ~
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Monday 15 September 2014

रचना शीर्षक : 1. मेले का बाँसुरीवाला ( श्रेणी ; लघुकथा ) हँस कथा कार्य शाला


रचना शीर्षक :   1. मेले का बाँसुरीवाला  ( श्रेणी ; लघुकथा  )
प्रकाशनार्थ :  हँस कथा कार्य शाला
c\oअक्षर प्रकाशन प्रा.लि ,
2\36 अंसारी रोड, दरियागंज ,
नई दिल्ली - 110002
ईमेल: editorhans@gmail.com    

प्रदीप यादव ,
जी 4 कंचन अपार्टमेंट 
133 अनूप नगर ;
एम.आई.जी. चौराहा
AB रोड ,ईंदौर 

Pin 452010  ईमेल: pradeep4133@yahoo.com 


मेले का बांसुरीवाला 

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                      by -  ~ प्रदीप यादव ~

.......कितना प्यारा वादा है इन मतवाली आँखों का  ....   फिल्मी

धुन बड़ी ही सुंदर ढंग से बांसुरी पर बज रही थी सड़क पर ...
एक बांसुरी वाला मधुर धुन  बजाता हुआ बांसुरियां  बेच रहा था।
प्यास  लगी, तो बजाना रोक वह नजदीकी  मकान के भाईसाहब
से इशारों में पानी देने की  गुजारिश करने लगा। साहब ने तल्खी
मना किया और अपने  मोबाईल पर बात करने में व्यस्त हो गए,
तभी भीतर से  नाजुक हाथों ने बांसुरी  वाले को पानी का गिलास
पकड़ा दिया। बांसुरी वाले ने पानी  पीकर अंग्रेजी में 'थेंक्यु', कहा
आगे बढ़ गया, भीतर से एक जोड़ी आँख उसे ओझल होते देखती
रहीं, पर शायद उन भाईसाहब  को नागवार  गुजरा उन्होंने बच्चे
को हिकारत भरी नज़र से देखा और फोन पर  बतियाने लगे, इस
वाकये से बच्चा भी सहम कर घर के अन्दर हो लिया।
कुछ दिन बाद बांसुरी वाला फिर लौटा पर  शायद  इस बार भाई-
साहब नही थे । बच्चा  दौड़कर  भीतर से  पानी  का  गिलास भर
लाया। 'बांसुरी वाले भईया ' ! आवाज दे उसने उसे पानी पीने का
आग्रह किया। बांसुरीवाले ने  इधर-उधर देखा फिर पानी पीते हुए
एक बांसुरी उसकी और बढा दी, बच्चे ने  हिचकते हुए लेने से  ना
कहा ....पर तब तक बाँसुरीवाला आगे बढ चुका था। बच्चा बांसुरी
ले मुस्कुराता हुआ घर के भीतर चला जाता है।
दुसरे दिन बांसुरी वाला  बड़ी ही मधुर  तान बजाता हुआ बच्चे के
घर के पास से गुजरा  पर वहां  उसकी पहले दिन वाली बांसुरी के
के टुकड़े घर के गेट  के बाहर पड़े देख  आसपास नज़र दौड़ाई  तो
उपरी मंजिल पर खड़े बच्चे का  रूंआसा चेहरा देख जैसे उसे कुछ
बोध हुआ। परन्तु उस दिन के बाद से बांसुरी वाला रोज़ आता पर
बिना  बांसुरी बजाऐ ही सामने  से गुजर जाता था। भाईसाहब भी
इस दौरान उसे कई बार घूर कर देखा करते।
कुछ और दिनों बाद बच्चे का परिवार स्थानीय मेले, घूमने आया।
एक बडे झूले के  किनारे बच्चे  खुश दिखाई  दे रहे थे। तभी भाई-
साहब बच्चों को झूले का टिकिट दिलाने लाइन में लग गए। बच्चे
के साथ आई  महिला ने उसे  बांसुरी  वाले से  बाँसुरी दिला दी बस
अब नया दृश्य बडा मनोहारी था। बांसुरी वाला जो भी धुन बजाता
बच्चे को हुबहू उसकी  जुगलबंदी करते देख परिवार  के लोग और
मेला घूम  रहे अन्य लोगों की आँखों  में प्रशंसा का भाव साफ पढ़ा
जा सकता था।
महिला बांसुरी  वाले से बोली, " ये अच्छी बांसुरी बजा लेता है, ना
बांसुरी वाले भइया .... ?
बांसुरी वाले प्रति-उत्तर दिया  ..जी, मेडम जी, बहुत प्यारी बजाता
है,  पर भाईसाहब  के डर से घर के आगे वाले चौराहे पर मंदिर में,
मैंने ही उसे बजाना सिखाई थी ।
इसके पापा ही इसे शौक से दिला दिया करते थे .....। यह कहते ही
उस की आँखे डबडबा गइ।
दीदी, तुम अब उस आदमी के लिए आंसू बहाने बंद करो ..... और
ये लो, झूले के टिकिट .....भाईसाहब की आवाज गूंजी ! .. महिला
की चेतना जैसे यथार्थ में लौटी, फिर संयत होते हुए उसने टिकिट
लिए और  प्रशंसा भरी नजरों से बच्चे को देखा, फिर सर पर हाथ
फेर कर अपने पास भींच लिया।
 .....कहने को  साथ अपने दुनिया चलती है, बस तेरी याद बाकी है,
परोक्ष में फिल्मी गीत बांसुरी वाला बजा रहा था ,  बच्चा  ख़ुशी से
चहकते  झूले का आनंद ले रहा था।  ...बांसुरी  वाले  की  प्यास ने
बच्चे की दुनिया को नया अध्याय जो दे दिया था ।
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  ~  प्रदीप यादव ~ (स्व-रचित, 06 नवंबर 2012 )

Monday 1 September 2014

अक्षत यादें और पुराना स्वेटर




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 अक्षत यादें और पुराना स्वेटर 
....... By ~ प्रदीप यादव ~

तीन बित्ते ( बिलास ) और 
चार अँगुलियों ;
के नाप ने ठंड से 
बचने का उपाय किया ; 
कितनी ही बार 
पहना होगा मैंने ;
वोह धुल कर उजला 
ही होता गया |

परखा जाँचा था 

वोह सफ़ेद ऊनी स्वेटर ;
खेल के दौरान एक बार
पीछे की ओर 

गेंद की मार से ;
हरा मटमैला सा धब्बा 
पड़ गया था ;
माँ ने ;

धो निचो के सुखाया ;
पर ये तोह अभी भी 
था कायम ; 
मैंने माँ के ;
हाथ देखे उनमें थी
छाले और साबुन 
की खरोंच |
मैंने कुछ सोचा 
स्वेटर को 
साबुन के पानी में 
रात भर गला कर  
सुबह रगड़ के धो दिया | 
अब बड़ा हो गया था ना 
... मैं भी और स्वेटर भी |

स्वेटर,

माँ के लाड़ की तरह
मेरे कालेज की 
क्रिकेट टीम के 
चयन के दौरान
मेरी पीठ पे था |
आज उसमें धब्बा नहीं था ;
पर इसे कैसे 
समझ आता था ;
साल दर साल 
मेरे ही नाप का
 .... हो जाता था |   

आज जब मेरे बच्चे के 

कपडे छोटे हुए तोह 
वही करामाती स्वेटर 
झबला और टोपी बन 
मेरे बेटे पर फबता था |
आशीर्वाद लंबे होते 
है ; कपडे नहीं ...!

मैं समझदार हो रहा था |
बूढी माँ की तिमारदारी 
के लिए नई चप्पल, चश्मा और 
दवाई का बक्सा लाते-लाते,
मैंने बेटे के हाथ 
क्या पकड़ा ...!
दुसरे हाथ से माँ ने 
छोटी सी कलाई थाम ली |
मुझे भान हो रहा था ;
इन सर्दियों में मेरा बेटा 
सँसार का सबसे 
खुशनसीब नन्हा है |    

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~ प्रदीप यादव ~